Saturday, August 13, 2011

नाथूराम गोड़से का अस्थि-कलश विसर्जन अभी बाकी है…


Wednesday 20 February २००८


नाथूराम गोड़से का अस्थि-कलश विसर्जन अभी बाकी है…

Nathuram Godse Mahatma Gandhi Asthi Kalash

गत 30 जनवरी को महात्मा गाँधी के अन्तिम ज्ञात (?) अस्थि कलश का विसर्जन किया गया। यह “अंतिम ज्ञात” शब्द कई लोगों को आश्चर्यजनक लगेगा, क्योंकि मानद राष्ट्रपिता के कितने अस्थि-कलश थे या हैं, यह अभी तक सरकार को नहीं पता। कहा जाता है कि एक और अस्थि-कलश बाकी है, जो कनाडा में पाया जाता है। बहरहाल, अस्थि-कलश का विसर्जन बड़े ही समारोहपूर्वक कर दिया गया, लेकिन इस सारे तामझाम के दौरान एक बात और याद आई कि पूना में नाथूराम गोड़से का अस्थि-कलश अभी भी रखा हुआ है, उनकी अन्तिम इच्छा पूरी होने के इन्तजार में।

फ़ाँसी दिये जाने से कुछ ही मिनट पहले नाथूराम गोड़से ने अपने भाई दत्तात्रय को हिदायत देते हुए कहा था, कि “मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धु नदी में ही उस दिन प्रवाहित करना जब सिन्धु नदी एक स्वतन्त्र नदी के रूप में भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमें कितने भी वर्ष लग जायें, कितनी ही पीढ़ियाँ जन्म लें, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना…”। नाथूराम गोड़से और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी राख उनके परिवार वालों को नहीं सौंपी गई थी। जेल अधिकारियों ने अस्थियों और राख से भरा मटका रेल्वे पुल के उपर से घग्गर नदी में फ़ेंक दिया था। दोपहर बाद में उन्हीं जेल कर्मचारियों में से किसी ने बाजार में जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह खबर एक स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई। इन्द्रसेन उस वक्त “द ट्रिब्यून” के कर्मचारी भी थे। शर्मा ने तत्काल दो महासभाईयों को साथ लिया और दुकानदार द्वारा बताई जगह पर पहुँचे। उन दिनों नदी में उस जगह सिर्फ़ छ्ह इंच गहरा ही पानी था, उन्होंने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर स्थानीय कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर ओमप्रकाश कोहल को सौंप दिया, जिन्होंने आगे उसे डॉ एलवी परांजपे को नाशिक ले जाकर सुपुर्द किया। उसके पश्चात वह अस्थि-कलश 1965 में नाथूराम गोड़से के छोटे भाई गोपाल गोड़से तक पहुँचा दिया गया, जब वे जेल से रिहा हुए। फ़िलहाल यह कलश पूना में उनके निवास पर उनकी अन्तिम इच्छा के मुताबिक सुरक्षित रखा हुआ है।

15 नवम्बर 1950 से आज तक प्रत्येक 15 नवम्बर को गोड़से का “शहीद दिवस” मनाया जाता है। सबसे पहले गोड़से और आपटे की तस्वीरों को अखंड भारत की तस्वीर के साथ रखकर फ़ूलमाला पहनाई जाती है। उसके पश्चात जितने वर्ष उनकी मृत्यु को हुए हैं उतने दीपक जलाये जाते हैं और आरती होती है। अन्त में उपस्थित सभी लोग यह सौगन्ध खाते हैं कि वे गोड़से के “अखंड हिन्दुस्तान” के सपने के लिये काम करते रहेंगे। गोपाल गोड़से अक्सर कहा करते थे कि यहूदियों को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे, हर वर्ष वे कसम खाते थे कि “अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा…”

हालांकि यह एक छोटा सा कार्यक्रम होता है, और उपस्थितों की संख्या भी कम ही होती है, लेकिन गत कुछ वर्षों से गोड़से की विचारधारा के समर्थन में भारत में लोगों की संख्या बढ़ी है, जैसे-जैसे लोग नाथूराम और गाँधी के बारे में विस्तार से जानते हैं, उनमें गोड़से धीरे-धीरे एक “आइकॉन” बन रहे हैं। वीर सावरकर जो कि गोड़से और आपटे के राजनैतिक गुरु थे, के भतीजे विक्रम सावरकर कहते हैं, कि उस समय भी हम हिन्दू महासभा के आदर्शों को मानते थे, और “हमारा यह स्पष्ट मानना है कि गाँधी का वध किया जाना आवश्यक था…”, समाज का एक हिस्सा भी अब मानने लगा है कि नाथूराम का वह कृत्य एक हद तक सही था। हमारे साथ लोगों की सहानुभूति है, लेकिन अब भी लोग खुलकर सामने आने से डरते हैं…।

डर की वजह भी स्वाभाविक है, गाँधी की हत्या के बाद कांग्रेस के लोगों ने पूना में ब्राह्मणों पर भारी अत्याचार किये थे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने संगठित होकर लूट और दंगों को अंजाम दिया था, उस वक्त पूना पहली बार एक सप्ताह तक कर्फ़्यू के साये में रहा। बाद में कई लोगों को आरएसएस और हिन्दू महासभा का सदस्य होने के शक में जेलों में ठूंस दिया गया था (कांग्रेस की यह “महान” परम्परा इंदिरा हत्या के बाद दिल्ली में सिखों के साथ किये गये व्यवहार में भी दिखाई देती है)। गोपाल गोड़से की पत्नी श्रीमती सिन्धु गोड़से कहती हैं, “वे दिन बहुत बुरे और मुश्किल भरे थे, हमारा मकान लूट लिया गया, हमें अपमानित किया गया और कांग्रेसियों ने सभी ब्राह्मणों के साथ बहुत बुरा सलूक किया… शायद यही उनका गांधीवाद हो…”। सिन्धु जी से बाद में कई लोगों ने अपना नाम बदल लेने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने दृढ़ता से इन्कार कर दिया। “मैं गोड़से परिवार में ब्याही गई थी, अब मृत्यु पर्यन्त यही मेरा उपनाम होगा, मैं आज भी गर्व से कहती हूँ कि मैं नाथूराम की भाभी हूँ…”।

चम्पूताई आपटे की उम्र सिर्फ़ 14 वर्ष थी, जब उनका विवाह एक स्मार्ट और आकर्षक युवक “नाना” आपटे से हुआ था, 31 वर्ष की उम्र में वे विधवा हो गईं, और एक वर्ष पश्चात ही उनका एकमात्र पुत्र भी चल बसा। आज वे अपने पुश्तैनी मकान में रहती हैं, पति की याद के तौर पर उनके पास आपटे का एक फ़ोटो है और मंगलसूत्र जो वे सतत पहने रहती हैं, क्योंकि नाना आपटे ने जाते वक्त कहा था कि “कभी विधवा की तरह मत रहना…”, वह राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानतीं, उन्हें सिर्फ़ इतना ही मालूम है गाँधी की हत्या में शरीक होने के कारण उनके पति को मुम्बई में हिरासत में लिया गया था। वे कहती हैं कि “किस बात का गुस्सा या निराशा? मैं अपना जीवन गर्व से जी रही हूँ, मेरे पति ने देश के लिये बलिदान दिया था।

12 जनवरी 1948 को जैसे ही अखबारों के टेलीप्रिंटरों पर यह समाचार आने लगा कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिये सरकार पर दबाव बनाने हेतु गाँधी अनशन पर बैठने वाले हैं, उसी वक्त गोड़से और आपटे ने यह तय कर लिया था कि अब गाँधी का वध करना ही है… इसके पहले नोआखाली में हिन्दुओं के नरसंहार के कारण वे पहले से ही क्षुब्ध और आक्रोशित थे। ये दोनों, दिगम्बर बड़गे (जिसे पिस्तौल चलाना आता था), मदनलाल पाहवा (जो पंजाब का एक शरणार्थी था) और विष्णु करकरे (जो अहमदनगर में एक होटल व्यवसायी था), के सम्पर्क में आये।

पहले इन्होंने गांधी वध के लिये 20 जनवरी का दिन तय किया था, गोड़से ने अपनी इंश्योरेंस पॉलिसी में बदलाव किये, एक बार बिरला हाऊस जाकर उन्होंने माहौल का जायजा लिया, पिस्तौल को एक जंगल में चलाकर देख लिया, लेकिन उनके दुर्भाग्य से उस दिन बम तो बराबर फ़ूटा, लेकिन पिस्तौल न चल सकी। मदनलाल पाहवा पकड़े गये (और यदि दिल्ली पुलिस और मुम्बई पुलिस में बराबर तालमेल और खुफ़िया सूचनाओं का लेनदेन होता तो उसी दिन इनके षडयन्त्र का भंडाफ़ोड़ हो गया होता)। बाकी लोग भागकर वापस मुम्बई आ गये, लेकिन जब तय कर ही लिया था कि यह काम होना ही है, तो तत्काल दूसरी ईटालियन मेड 9 एमएम बेरेटा पिस्तौल की व्यवस्था 27 जनवरी को ग्वालियर से की गई। दिल्ली वापस आने के बाद वे लोग रेल्वे के रिटायरिंग रूम में रुके। शाम को आपटे और करकरे ने चांदनी चौक में फ़िल्म देखी और अपना फ़ोटो खिंचवाया, बिरला मन्दिर के पीछे स्थित रिज पर उन्होंने एक बार फ़िर पिस्तौल को चलाकर देखा, वह बेहतरीन काम कर रही थी।

गाँधी वध के पश्चात उस समय समूची भीड़ में एक ही स्थिर दिमाग वाला व्यक्ति था, नाथूराम गोड़से। गिरफ़्तार होने के पश्चात गोड़से ने डॉक्टर से उसे एक सामान्य व्यवहार वाला और शांत दिमाग होने का सर्टिफ़िकेट माँगा, जो उसे मिला भी। बाद में जब अदालत में गोड़से की पूरी गवाही सुनी जा रही थी, पुरुषों के बाजू फ़ड़क रहे थे, और स्त्रियों की आँखों में आँसू थे।

बहरहाल, पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने और टुकड़े-टुकड़े करके भारत में मिलाने हेतु कई समूह चुपचाप काम कर रहे हैं, उनका मानना है कि इसके लिये साम-दाम-दण्ड-भेद हरेक नीति अपनानी चाहिये। जिस तरह सिर्फ़ साठ वर्षों में एक रणनीति के तहत कांग्रेस, जिसका पूरे देश में कभी एक समय राज्य था, आज सिमट कर कुछ ही राज्यों में रह गई है, उसी प्रकार पाकिस्तान भी एक न एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जायेगा और उसे अन्ततः भारत में मिलना होगा, और तब गोड़से का अस्थि विसर्जन किया जायेगा।
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डिस्क्लेमर : यह लेख सिर्फ़ जानकारी के लिये है, फ़ोकटिया बुद्धिजीवी बहस में उलझने का मेरा कोई इरादा नहीं है और मेरे पास समय भी नहीं है। डिस्क्लेमर देना इसलिये जरूरी था कि बाल की खाल निकालने में माहिर कथित बुद्धिजीवी इस लेख का गलत मतलब निकाले बिना नहीं रहेंगे।

मृत्यु पत्र - अमर बलिदानी वीर नाथूराम गोडसे


Posted by tee kay marwah on July 3, 2011 at 6:३८प्म
http://www.mediaclubofindia.com/forum/topics/4335940:Topic:174477
प्रिय बन्धो चि. दत्तात्रय वि. गोडसे
मेरे बीमा के रूपिया आ जायेंगे तो उस रूपिया का विनियोग अपने परिवार के लिए करना । रूपिया 2000 आपके पत्नी के नाम पर , रूपिया 3000 चि. गोपाल की धर्मपत्नी के नाम पर और रूपिया 2000 आपके नाम पर । इस तरह से बीमा के कागजों पर मैंने रूपिया मेरी मृत्यु के बाद मिलने के लिए लिखा है ।
मेरी उत्तरक्रिया करने का अधिकार अगर आपकों मिलेगा तो आप अपनी इच्छा से किसी तरह से भी उस कार्य को सम्पन्न करना । लेकिन मेरी एक ही विशेष इच्छा यही लिखता हूँ ।
अपने भारतवर्ष की सीमा रेखा सिंधु नदी है जिसके किनारों पर वेदों की रचना प्राचीन द्रष्टाओं ने की है ।
वह सिंधुनदी जिस शुभ दिन में फिर भारतवर्ष के ध्वज की छाया में स्वच्छंदता से बहती रहेगी उन दिनों में मेरी अस्थि या रक्षा का कुछ छोटा सा हिस्सा उस सिंधु नदी में बहा दिया जाएँ ।
मेरी यह इच्छा सत्यसृष्टि में आने के लिए शायद ओर भी एक दो पीढियों ( Generations ) का समय लग जाय तो भी चिन्ता नहीं । उस दिन तक वह अवशेष वैसे ही रखो । और आपके जीवन में वह शुभ दिन न आया तो आपके वारिशों को ये मेरी अन्तिम इच्छा बतलाते जाना । अगर मेरा न्यायालीन वक्तव्य को सरकार कभी बन्धमुक्त करेगी तो उसके प्रकाशन का अधिकार भी मैं आपको दे रहा हूँ ।
मैंने 101 रूपिया आपकों आज दिये है जो आप सौराष्ट्र सोमनाथ मन्दिर पुनरोद्धार हो रहा है उसके कलश के कार्य के लिए भेज देना ।
वास्तव में मेरे जीवन का अन्त उसी समय हो गया था जब मैंने गांधी पर गोली चलायी थी । उसके पश्चात मानो मैं समाधि में हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ । मैं मानता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाएँ , जिसके लिए मैं उनकी सेवा के प्रति और उनके प्रति नतमस्तक हूँ , किन्तु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि का विभाजन करने का अधिकार नहीं था ।
मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता और नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से कोई दया की याचना करें । अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना अगर पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है । अगर वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है की मनुष्यों के द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमें मेरे कार्य को अपराध नहीं समझा जायेगा । मैंने देश और जाति की भलाई के लिए यह कार्य किया है । मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियों के कारण हिन्दुओं पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए । मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ' नीति की दृष्टि ' से पूर्णतया उचित है । मुझे इस बात में लेशमात्र भी सन्देह नहीं की भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित ठहराएंगे ।
कुरूक्षेत्र और पानीपत की पावन भूमि से चलकर आने वाली हवा में अन्तिम श्वास लेता हूँ । पंजाब गुरू गोविंद की कर्मभूमि है । भगत सिंह , राजगुरू और सुखदेव यहाँ बलिदान हुए । लाला हरदयाल तथा भाई परमानंद इन त्यागमूर्तियों को इसी प्रांत ने जन्म दिया ।
उसी पंजाब की पवित्र भूमि पर मैं अपना शरीर रखता हूँ । मुझे इस बात का संतोष है । खण्डित भारत का अखण्ड भारत होगा उसी दिन खण्डित पंजाब का भी पहले जैसा पूर्ण पंजाब होगा । यह शीघ्र हो यही अंतिम इच्छा !


WHY I KILLED GANDHI – Nathuram Godse's Final Address to the Court.

Gandhiji’s assassin, Nathuram Godse’s Final Address to the Court।

http://vishwajeetsingh1008.blogspot.com/2010/12/blog-post_8813.html

WHY I KILLED GANDHI - Nathuram Godse's Final Address to the Court.
WHY I KILLED GANDHI - Nathuram Godse's Final Address to the Court.
Nathuram Godse was arrested immediately after he assassinated Gandhiji, based on a F. I. R. filed by Nandlal Mehta at the Tughlak Road Police staton at Delhi . The trial, which was held in camera, began on May 27, 1948 and concluded on February 10, 1949. He was sentenced to death.
An appeal to the Punjab High Court, then in session at Simla, did not find favour and the sentence was upheld. The statement that you are about to read is the last made by Godse before the Court on the May 5, 1949.
Such was the power and eloquence of this statement that one of the judges, G. D. Khosla, later wrote, “I have, however, no doubt that had the audience of that day been constituted into a jury and entrusted with the task of deciding Godse’s appeal, they would have brought a verdict of ‘not Guilty’ by an overwhelming majority”
WHY I KILLED GANDHI
Born in a devotional Brahmin family, I instinctively came to revere Hindu religion, Hindu history and Hindu culture. I had, therefore, been intensely proud of Hinduism as a whole. As I grew up I developed a tendency to free thinking unfettered by any superstitious allegiance to any isms, political or religious. That is why I worked actively for the eradication of untouchability and the caste system based on birth alone. I openly joined RSS wing of anti-caste movements and maintained that all Hindus were of equal status as to rights, social and religious and should be considered high or low on merit alone and not through the accident of birth in a particular caste or profession.
I used publicly to take part in organized anti-caste dinners in which thousands of Hindus, Brahmins, Kshatriyas, Vaisyas, Chamars and Bhangis participated. We broke the caste rules and dined in the company of each other. I have read the speeches and writings of Ravana, Chanakiya, Dadabhai Naoroji, Vivekanand, Gokhale, Tilak, along with the books of ancient and modern history of India and some prominent countries like England , France , America and Russia . Moreover I studied the tenets of Socialism and Marxism. But above all I studied very closely whatever Veer Savarkar and Gandhiji had written and spoken, as to my mind these two ideologies have contributed more to the moulding of the thought and action of the Indian people during the last thirty years or so, than any other single factor has done.
All this reading and thinking led me to believe it was my first duty to serve Hindudom and Hindus both as a patriot and as a world citizen. To secure the freedom and to safeguard the just interests of some thirty crores (300 million) of Hindus would automatically constitute the freedom and the well-being of all India , one fifth of human race. This conviction led me naturally to devote myself to the Hindu Sanghtanist ideology and programme, which alone, I came to believe, could win and preserve the national independence of Hindustan , my Motherland, and enable her to render true service to humanity as well.
Since the year 1920, that is, after the demise of Lokamanya Tilak, Gandhiji’s influence in the Congress first increased and then became supreme. His activities for public awakening were phenomenal in their intensity and were reinforced by the slogan of truth and non-violence which he paraded ostentatiously before the country. No sensible or enlightened person could object to those slogans. In fact there is nothing new or original in them.. They are implicit in every constitutional public movement. But it is nothing but a mere dream if you imagine that the bulk of mankind is, or can ever become, capable of scrupulous adherence to these lofty principles in its normal life from day to day.
In fact, honour, duty and love of one’s own kith and kin and country might often compel us to disregard non-violence and to use force. I could never conceive that an armed resistance to an aggression is unjust. I would consider it a religious and moral duty to resist and, if possible, to overpower such an enemy by use of force. [In the Ramayana] Rama killed Ravana in a tumultuous fight and relieved Sita.. [In the Mahabharata], Krishna killed Kansa to end his wickedness; and Arjuna had to fight and slay quite a number of his friends and relations including the revered Bhishma because the latter was on the side of the aggressor. It is my firm belief that in dubbing Rama, Krishna and Arjuna as guilty of violence, the Mahatma betrayed a total ignorance of the springs of human action.
In more recent history, it was the heroic fight put up by Chhatrapati Shivaji that first checked and eventually destroyed the Muslim tyranny in India . It was absolutely essentially for Shivaji to overpower and kill an aggressive Afzal Khan, failing which he would have lost his own life. In condemning history’s towering warriors like Shivaji, Rana Pratap and Guru Gobind Singh as misguided patriots, Gandhiji has merely exposed his self-conceit. He was, paradoxical as it may appear, a violent pacifist who brought untold calamities on the country in the name of truth and non-violence, while Rana Pratap, Shivaji and the Guru will remain enshrined in the hearts of their countrymen for ever for the freedom they brought to them.
The accumulating provocation of thirty-two years, culminating in his last pro-Muslim fast, at last goaded me to the conclusion that the existence of Gandhi should be brought to an end immediately. Gandhi had done very good in South Africa to uphold the rights and well-being of the Indian community there. But when he finally returned to India he developed a subjective mentality under which he alone was to be the final judge of what was right or wrong. If the country wanted his leadership, it had to accept his infallibility; if it did not, he would stand aloof from the Congress and carry on his own way.
Against such an attitude there can be no halfway house. Either Congress had to surrender its will to his and had to be content with playing second fiddle to all his eccentricity, whimsicality, metaphysics and primitive vision, or it had to carry on without him. He alone was the Judge of everyone and every thing; he was the master brain guiding the civil disobedience movement; no other could know the technique of that movement. He alone knew when to begin and when to withdraw it. The movement might succeed or fail, it might bring untold disaster and political reverses but that could make no difference to the Mahatma’s infallibility. ‘A Satyagrahi can never fail’ was his formula for declaring his own infallibility and nobody except himself knew what a Satyagrahi is. Thus, the Mahatma became the judge and jury in his own cause. These childish insanities and obstinacies, coupled with a most severe austerity of life, ceaseless work and lofty character made Gandhi formidable and irresistible.
Many people thought that his politics were irrational but they had either to withdraw from the Congress or place their intelligence at his feet to do with as he liked. In a position of such absolute irresponsibility Gandhi was guilty of blunder after blunder, failure after failure, disaster after disaster. Gandhi’s pro-Muslim policy is blatantly in his perverse attitude on the question of the national language of India . It is quite obvious that Hindi has the most prior claim to be accepted as the premier language. In the beginning of his career in India , Gandhi gave a great impetus to Hindi but as he found that the Muslims did not like it, he became a champion of what is called Hindustani.. Everybody in India knows that there is no language called Hindustani; it has no grammar; it has no vocabulary. It is a mere dialect, it is spoken, but not written. It is a bastard tongue and cross-breed between Hindi and Urdu, and not even the Mahatma’s sophistry could make it popular. But in his desire to please the Muslims he insisted that Hindustani alone should be the national language of India . His blind followers, of course, supported him and the so-called hybrid language began to be used. The charm and purity of the Hindi language was to be prostituted to please the Muslims. All his experiments were at the expense of the Hindus.
From August 1946 onwards the private armies of the Muslim League began a massacre of the Hindus. The then Viceroy, Lord Wavell, though distressed at what was happening, would not use his powers under the Government of India Act of 1935 to prevent the rape, murder and arson. The Hindu blood began to flow from Bengal to Karachi with some retaliation by the Hindus. The Interim Government formed in September was sabotaged by its Muslim League members right from its inception, but the more they became disloyal and treasonable to the government of which they were a part, the greater was Gandhi’s infatuation for them. Lord Wavell had to resign as he could not bring about a settlement and he was succeeded by Lord Mountbatten. King Log was followed by King Stork. The Congress which had boasted of its nationalism and socialism secretly accepted Pakistan literally at the point of the bayonet and abjectly surrendered to Jinnah. India was vivisected and one-third of the Indian territory became foreign land to us from August 15, 1947.
Lord Mountbatten came to be described in Congress circles as the greatest Viceroy and Governor-General this country ever had. The official date for handing over power was fixed for June 30, 1948, but Mountbatten with his ruthless surgery gave us a gift of vivisected India ten months in advance. This is what Gandhi had achieved after thirty years of undisputed dictatorship and this is what Congress party calls ‘freedom’ and ‘peaceful transfer of power’. The Hindu-Muslim unity bubble was finally burst and a theocratic state was established with the consent of Nehru and his crowd and they have called ‘freedom won by them with sacrifice’ – whose sacrifice? When top leaders of Congress, with the consent of Gandhi, divided and tore the country – which we consider a deity of worship – my mind was filled with direful anger.
One of the conditions imposed by Gandhi for his breaking of the fast unto death related to the mosques in Delhi occupied by the Hindu refugees. But when Hindus in Pakistan were subjected to violent attacks he did not so much as utter a single word to protest and censure the Pakistan Government or the Muslims concerned. Gandhi was shrewd enough to know that while undertaking a fast unto death, had he imposed for its break some condition on the Muslims in Pakistan , there would have been found hardly any Muslims who could have shown some grief if the fast had ended in his death. It was for this reason that he purposely avoided imposing any condition on the Muslims. He was fully aware of from the experience that Jinnah was not at all perturbed or influenced by his fast and the Muslim League hardly attached any value to the inner voice of Gandhi.
Gandhi is being referred to as the Father of the Nation. But if that is so, he had failed his paternal duty inasmuch as he has acted very treacherously to the nation by his consenting to the partitioning of it. I stoutly maintain that Gandhi has failed in his duty. He has proved to be the Father of Pakistan. His inner-voice, his spiritual power and his doctrine of non-violence of which so much is made of, all crumbled before Jinnah’s iron will and proved to be powerless. Briefly speaking, I thought to myself and foresaw I shall be totally ruined, and the only thing I could expect from the people would be nothing but hatred and that I shall have lost all my honour, even more valuable than my life, if I were to kill Gandhiji. But at the same time I felt that the Indian politics in the absence of Gandhiji would surely be proved practical, able to retaliate, and would be powerful with armed forces. No doubt, my own future would be totally ruined, but the nation would be saved from the inroads of Pakistan . People may even call me and dub me as devoid of any sense or foolish, but the nation would be free to follow the course founded on the reason which I consider to be necessary for sound nation-building.
After having fully considered the question, I took the final decision in the matter, but I did not speak about it to anyone whatsoever. I took courage in both my hands and I did fire the shots at Gandhiji on 30th January 1948, on the prayer-grounds of Birla House. I do say that my shots were fired at the person whose policy and action had brought rack and ruin and destruction to millions of Hindus. There was no legal machinery by which such an offender could be brought to book and for this reason I fired those fatal shots. I bear no ill will towards anyone individually but I do say that I had no respect for the present government owing to their policy which was unfairly favourable towards the Muslims. But at the same time I could clearly see that the policy was entirely due to the presence of Gandhi.
I have to say with great regret that Prime Minister Nehru quite forgets that his preachings and deeds are at times at variances with each other when he talks about India as a secular state in season and out of season, because it is significant to note that Nehru has played a leading role in the establishment of the theocratic state of Pakistan, and his job was made easier by Gandhi’s persistent policy of appeasement towards the Muslims। I now stand before the court to accept the full share of my responsibility for what I have done and the judge would, of course, pass against me such orders of sentence as may be considered proper. But I would like to add that I do not desire any mercy to be shown to me, nor do I wish that anyone else should beg for mercy on my behalf. My confidence about the moral side of my action has not been shaken even by the criticism levelled against it on all sides. I have no doubt that honest writers of history will weigh my act and find the true value thereof some day in future.
15 अगस्त आजादी नहीं धोखा है, देश का समझौता है , शासन नहीं शासक बदला है, गोरा नहीं अब काला है 15 अगस्त 1947 को देश आजाद नहीं हुआ तो हर वर्ष क्यों ख़ुशी मनाई जाती है ?
क्यों भारतवासियों के साथ भद्दा मजाक …किया जा रहा है l
इस सन्दर्भ में निम्नलिखित तथ्यों को जानें …. :
1. भारत को सत्ता हस्तांतरण 14…-15 अगस्त 1947 को गुप्त दस्तावेज के तहत, जो की 1999 तक प्रकाश में नहीं आने थे (50 वर्षों तक ) l
2. भारत सरकार का संविधान के महत्वपूर्ण अनुच्छेदों में संशोधन करने का अधिकार नहीं है l
3. संविधान के अनुच्छेद 348 के अंतर्गत उच्चतम न्यायलय, उच्च न्यायलय तथा संसद की कार्यवाही अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में होने के बजाय अंग्रेजी भाषा में होगी l
4. अप्रैल 1947 में लन्दन में उपनिवेश देश के प्रधानमंत्री अथवा अधिकारी उपस्थित हुए, यहाँ के घोषणा पात्र के खंड 3 में भारत वर्ष की इस इच्छा को निश्चयात्मक रूप में बताया है की वह …
क ) ज्यों का त्यों ब्रिटिश का राज समूह सदस्य बना रहेगा तथा
ख ) ब्रिटिश राष्ट्र समूह के देशों के स्वेच्छापूर्ण मिलाप का ब्रिटिश सम्राट को चिन्ह (प्रतीक) समझेगा, जिनमे शामिल हैं ….. (इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड, दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान, श्री लंका) … तथा
ग ) सम्राट को ब्रिटिश समूह का अध्यक्ष स्वीकार करेगा l
5. भारत की विदेश नीति तथा अर्थ नीति, भारत के ब्रिटिश का उपनिवेश होने के कारण स्वतंत्र नहीं है अर्थात उन्हीं के अधीन है l
6. नौ-सेना के जहाज़ों पर आज भी तथाकथित भारतीय राष्ट्रीय ध्वज नहीं है l
7. जन गन मन अधिनायक जय हे … हमारा राष्ट्र-गान नहीं है, अपितु जार्ज पंचम के भारत आगमन पर उसके स्वागत में गाया गया गान है, उपनिवेशिक प्रथाओं के कारण दबाव में इसी गीत को राष्ट्र-गान बना दिया गया … जो की हमारी गुलामी का प्रतीक है l
8. सन 1948 में बने बर्तानिया कानून के अंतर्गत भाग 1 (1) 1948 के बर्तानिया के कानून के अनुसार हर भारतवासी बर्तानिया की रियाया है और यह कानून भारत के गणराज्य प्राप्त कर लेने के पश्चात भी लागू है l
9. यदि 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ तो प्रथम गवर्नर जनरल माउन्ट-बेटन को क्यों बनाया गया ??
10. 22 जून 1948 को भारत के दुसरे गवर्नर के रूप में चक्रवर्ती राजगोपालचारी ने निम्न शपथ ली l “मैं चक्रवर्ती राजगोपालचारी यथाविधि यह शपथ लेता हूँ की मैं सम्राट जार्ज षष्ठ और उनके वंशधर और उत्तराधिकारी के प्रति कानून के मुताबिक विश्वास के साथ वफादारी निभाऊंगा, एवं मैं चक्रवर्ती राजगोपालचारी यह शपथ लेता हूँ की मैं गवर्नर जनरल के पद पर होते हुए सम्राट जार्ज षष्ठ और उनके वंशधर और उत्तराधिकारी की यथावत सव्वा करूँगा l ”
11. 14 अगस्त 1947 को भारतीय स्वतन्त्रता विधि से भारत के दो उपनिवेश बनाए गए जिन्हें ब्रिटिश Common-Wealth की … धारा नं. 9 (1) – (2) – (3) तथा धारा नं. 8 (1) – (2) धारा नं. 339 (1) धारा नं. 362 (1) – (3) – (5) G – 18 के अनुच्छेद 576 और 7 के अंतर्गत …. इन उपरोक्त कानूनों को तोडना या भंग करना भारत सरकार की सीमाशक्ति से बाहर की बात है तथा प्रत्येक भारतीय नागरिक इन धाराओं के अनुसार ब्रिटिश नागरिक अर्थात गोरी सन्तान है l
12. भारतीय संविधान की व्याख्या अनुच्छेद 147 के अनुसार गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 तथा indian independence act 1947 के अधीन ही की जा सकती है … यह एक्ट ब्रिटिश सरकार ने लागू किये l
13. भारत सरकार के संविधान के अनुच्छेद नं. 366, 371, 372 एवं 392 को बदलने या रद्द करने की क्षमता भारत सरकार को नहीं है l
14. भारत सरकार के पास ऐसे ठोस प्रमाण अभी तक नहीं हैं, जिनसे नेताजी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु साबित होती है l इसके उपरान्त मोहनदास गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना और मौलाना अबुल कलाम आजाद ने ब्रिटिश न्यायाधीश के साथ यह समझौता किया कि अगर नेताजी ने भारत में प्रवेश किया, तो वह गिरफ्तार ककर ब्रिटिश हुकूमत को सौंप दिया जाएगाl बाद में ब्रिटिश सरकार के कार्यकाल के दौरान उन सभी राष्ट्रभक्तों की गिरफ्तारी और सुपुर्दगी पर मुहर लगाईं गई जिनको ब्रिटिश सरकार पकड़ नहीं पाई थी l
15. डंकल व् गैट, साम्राज्यवाद को भारत में पीछे के दरवाजों से लाने का सुलभ रास्ता बनाया है ताकि भारत की सत्ता फिर से इनके हाथों में आसानी से सौंपी जा सके l
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है की सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को आज तक एक धोखे में ही रखा गया है, तथाकथित नेहरु गाँधी परिवार इस सच्चाई से पूर्ण रूप से अवगत थे परन्तु सत्तालोलुभ पृवृत्ति के चलते आज तक उन्होंने भारत की जनता को अँधेरे में रखा और विश्वासघात करने में पूर्ण रूप से सफल हुए l
सवाल उठता है कि … यह भारतीय थे या …. काले अंग्रेज ?
नहीं स्वतंत्र अब तक हम, हमे स्वतंत्र होना है कुछ झूठे देशभक्तों ने, किये जो पाप, धोना है सरदार भगत सिंह कि मृत्यु के पीछे अंग्रेजों के कानूनों के बहाने गुंडागर्दी एवं क्रूरता के राज्य का पर्दाफाश करना एवं भारत के नौजवानों को भारत कि पीड़ा के प्रति जागृत करना उद्देश था l राजीव दीक्षित कि शहादत भी षड्यंत्रकारी प्रतीत होती है, SEZ , परमाणु संधि, विदेशी बाजारों के षड्यंत्र … आदि योजनाओं एवं कानूनी मकडजाल में फंसे भारत को जागृत करने तथा नवयुवकों को इन कार्यों के लिए आगे लाने के कारण l यदि भगत सिंह और राजीव दीक्षित और समय तक जीवित रहते तो परिवर्तन और रहस्यों कि परत और खुल सकती थी l भारत इतना गरीब देश है कि 100000,0000000 (1 लाख करोड़) के रोज रोज नए नए घोटाले होते हैं…. ? क्या गरीब देश भारत से साड़ी दुनिया के लुटेरे व्यापार के नाम पर 20 लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष ले जा सकते हैं ?
विदेशी बेंकों में जमा धन कितना हो सकता है ? एक अनुमान के तहत 280 लाख करोड़ कहा जाता है ? पर यह सिर्फ SWISS बेंकों के कुछ बेंकों कि ही report है … समस्त बेंकों कि नहीं, इसके अलावा दुनिया भर के और भी देशों में काला धन जमा करके रखा हुआ है ?
भारत के युवकों, अपनी संस्कृति को पहचानो, जिसमे शास्त्र और शस्त्र दोनों कि शिक्षा दी जाती थी l आज तुम्हारे पास न शास्त्र हैं न शस्त्र हैं .. क्यों ?? क्या कारण हो सकते हैं ?? भारत गरीब नहीं है … भारत सोने कि चिड़िया था … है … और सदैव रहेगा l
तुम्हें तुम्हारे नेता, पत्रकार और प्रशासक झूठ पढ़ाते रहे हैं l वो इतिहास पढ़ा है तुमने जो नेहरु के प्रधानमंत्री निवास में 75 दिनों तक अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय और अंग्रेजों के निर्देशों पर बनाया गया l जिसमे प्राचीन शिव मन्दिर तेजो महालय को ताज महल, ध्रुव स्तम्भ को क़ुतुब मीनार और शिव मन्दिर को जामा मस्जिद ही पढ़ाया जाता है l
सारे यूरोप – अमेरिका के लिए लूट का केंद्र बने भारत को गुलामी कि जंजीरों से मुक्त करवाने हेतु आगे आओ l उठो…. सत्य और धर्म की संस्थापना कि हुंकार तो भरो एक बार, विश्व के सभी देशों कि बोद्धिक संपदा बने भारत l जय जय भारत जय हो


रविवार, १२ दिसम्बर २०१०


अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा -वीर नाथूराम गोडसे भाग - एक

19 मई 1910 को मुम्बई - पुणे के बीच ' बारामती ' में संस्कारित राष्ट्रवादी हिन्दु परिवार मेँ जन्मेँ वीर नाथूराम गोडसे एक ऐसा नाम है जिसके सुनते ही लोगोँ के मन-मस्तिष्क मेँ एक ही विचार आता है कि गांधी का हत्यारा । इतिहास मेँ भी गोडसे जैसे परम राष्ट्रभक्त बलिदानी का इतिहास एक ही पंक्ति मेँ समाप्त हो जाता है । गांधी का सम्मान करने वाले गोडसे को गांधी का वध आखिर क्योँ करना पडा,इसके पीछे क्या कारण रहे, इन कारणोँ की कभी भी व्याख्या नही की जाती ।
नाथूराम गोडसे एक विचारक, समाज सुधारक, पत्रकार एवं सच्चा राष्ट्रभक्त था और गांधी का सम्मान करने वालोँ मेँ भी अग्रीम पंक्ति मेँ था । किन्तु सक्ता परिवर्तन के पश्चात गांधीवाद मेँ जो परिवर्तन देखने को मिला, उससे नाथूराम ही नहीँ करीब-करीब सम्पूर्ण राष्ट्रवादी युवा वर्ग आहत था । गांधीजी इस देश के विभाजन के पक्ष मेँ नहीँ थे । उनके लिए ऐसे देश की कल्पना भी असम्भव थी, जो किसी एक धर्म के अनुयायियोँ का बसेरा हो । उन्होँने प्रतिज्ञयापूर्ण घोषणा की थी कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा । परन्तु न तो वे विभाजन रोक सके, न नरसंहार का वह घिनौना ताण्डव, जिसने न जाने कितनोँ की अस्मत लूट ली, कितनोँ को बेघर किया और कितने सदा - सदा के लिए अपनोँ से बिछड गये । खण्डित भारत का निर्माण गांधीजी की लाश पर नहीँ, अपितु 25 लाख हिन्दू, सिक्खोँ और मुसलमानोँ की लाशोँ तथा असंख्य माताओँ और बहनोँ के शीलहरण पर हुआ ।
किसी भी महापुरुष के जीवन मेँ उसके सिद्धांतोँ और आदर्शो की मौत ही वास्तविक मौत होती है । जब लाखोँ माताओँ, बहनोँ के शीलहरण तथा रक्तपात और विश्व की सबसे बडी त्रासदी द्विराष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ । उस समय गांधी के लिए हिन्दुस्थान की जनता मेँ जबर्दस्त आक्रोश फैल चुका था ।प्रायः प्रत्येक की जुबान पर एक ही बात थी कि गांधी मुसलमानोँ के सामने घुटने चुके है ।रही - सही कसर पाकिस्तान को 55 करोड रुपये देने के लिए गांधी के अनशन ने पूरी कर दी । उस समय सारा देश गांधी का घोर विरोध कर रहा था और परमात्मा से उनकी मृत्यु की कामना कर रहा था ।
जहाँ एक और गांधीजी पाकिस्तान को 55 करोड रुपया देने के लिए हठ कर अनशन पर बैठ गये थे, वही दूसरी और पाकिस्तानी सेना हिन्दू निर्वासितोँ को अनेक प्रकार की प्रताडना से शोषण कर रही थी, हिन्दुओँ का जगह - जगह कत्लेआम कर रही थी, माँ और बहनोँ की अस्मतेँ लूटी जा रही थी, बच्चोँ को जीवित भूमि मेँ दबाया जा रहा था । जिस समय भारतीय सेना उस जगह पहुँचती, उसे मिलती जगह - जगह अस्मत लुटा चुकी माँ - बहनेँ, टूटी पडी चुडियाँ, चप्पले और बच्चोँ के दबे होने की आवाजेँ ।ऐसे मेँ जब गांधीजी से अपनी जिद छोडने और अनशन तोडने का अनुरोध किया जाता तो गांधी का केवल एक ही जबाब होता - "चाहे मेरी जान ही क्योँ न चली जाए, लेकिन मैँ न तो अपने कदम पीछे करुँगा और न ही अनशन समाप्त करुगा ।" आखिर मेँ नाथूराम गोडसे का मन जब पाकिस्तानी अत्याचारोँ से ज्यादा ही व्यथित हो उठा तो मजबूरन उन्हेँ हथियार उठाना पडा । नाथूराम गोडसे ने इससे पहले कभी हथियार को हाथ नही लगाया था । 30 जनवरी 1948 को गोडसे ने जब गांधी पर गोली चलायी तो गांधी गिर गये । उनके इर्द-गिर्द उपस्थित लोगोँ ने गांधी को बाहोँ मेँ ले लिया । कुछ लोग नाथूराम गोडसे के पास पहुँचे । गोडसे ने उन्हेँ प्रेमपूर्वक अपना हथियार सौप दिया और अपने हाथ खडे कर दिये । गोडसे ने कोई प्रतिरोध नहीँ किया । गांधी वध के पश्चात उस समय समूची भीड मेँ एक ही स्थिर मस्तिष्क वाला व्यक्ति था, नाथूराम गोडसे । गिरफ्तार होने के बाद गोडसे ने डाँक्टर से शांत मस्तिष्क होने का सर्टिफिकेट मांगा, जो उन्हेँ मिला भी ।
नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के सम्मुख अपना पक्ष रखते हुए गांधी का वध करने के 150 कारण बताये थे। उन्होँने जज से आज्ञा प्राप्त कर ली थी कि वह अपने बयानोँ को पढकर सुनाना चाहते है । अतः उन्होँने वो 150 बयान माइक पर पढकर सुनाए । लेकिन नेहरु सरकार ने (डर से) गोडसे के गांधी वध के कारणोँ पर रोक लगा दी जिससे वे बयान भारत की जनता के समक्ष न पहुँच पाये । गोडसे के उन क्रमबद्ध बयानोँ मेँ से कुछ बयान आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा जिससे आप जान सके कि गोडसे के बयानोँ पर नेहरु ने रोक क्योँ लगाई ? तथा गांधी वध उचित था या अनुचित ?
दक्षिण अफ्रिका मेँ गांधीजी ने भारतियोँ के हितोँ की रक्षा के लिए बहुत अच्छे काम किये थे । लेकिन जब वे भारत लोटे तो उनकी मानसिकता व्यक्तिवादी हो चुकी थी । वे सही और गलत के स्वयंभू निर्णायक बन बैठे थे । यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिये था तो उनकी अनमनीयता को स्वीकार करना भी उनकी बाध्यता थी । ऐसा न होने पर गांधी कांग्रेस की नीतियोँ से हटकर स्वयं अकेले खडे हो जाते थे । वे हर किसी निर्णय के खुद ही निर्णायक थे । सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी की नीति पर नहीँ चलेँ । फिर भी वे इतने लोकप्रिय हुए की गांधीजी की इच्छा के विपरीत पट्टाभी सीतारमैया के विरोध मेँ प्रबल बहुमत से चुने गये । गांधी को दुःख हुआ, उन्होँने कहा की सुभाष की जीत गांधी की हार है । जिस समय तक सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस की गद्दी से नहीँ उतारा गया तब तक गांधी का क्रोध शांत नहीँ हुआ ।
मुस्लिम लीग देश की शान्ति को भंग कर रही थी और हिन्दुओँ पर अत्याचार कर रही थी । कांग्रेस इन अत्याचारोँ को रोकने के लिए कुछ भी नहीँ करना चाहती थी, क्योकि वह मुसलमानोँ को खुश रखना चाहती थी । गांधी जिस बात को अनुकूल नहीँ पाते थे उसे दबा देते थे । इसलिए मुझे यह सुनकर आश्चर्य होता है की आजादी गांधी ने प्राप्त की । मेरा विचार है की मुसलमानोँ के आगे झुकना आजादी के लिए लडाई नहीँ थी । गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे ।
क्रमश .......
विश्वजीतसिँह

सोमवार, १३ दिसम्बर २०१०


अखण्ड भारत के स्वप्न द्रष्टा - वीर नाथूराम गोडसे भाग-2

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जैसा कि पिछले भाग मेँ बताया गया है कि श्री नाथूराम गोडसे व अन्य राष्ट्रवादी युवा गांधीजी की हठधर्मिता और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से क्षुब्ध थे, हिन्दुस्थान की जनता के दिलोँ मेँ गांधीजी के झूठे अहिँसावाद और नेतृत्व के प्रति घृणा पैदा हो चुकी थी । उस समय गांधीजी के चरित्र पर भी अंगुली उठ रही थी जिसके चलते वरिष्ठ नेता जे. बी. कृपलानी और वल्लभ भाई पटेल आदि नेताओँ ने उनसे दूरी बना ली । यहा तक की कई लोगोँ ने उनका आश्रम छोड दिया था । अब उससे आगे के बयान .......
इस बात को तो मैँ सदा से बिना छिपाए कहता रहा हूँ कि मैँ गांधीजी के सिद्धांतोँ के विरोधी सिद्धांतोँ का प्रचार कर रहा हूँ । यह मेरा पूर्ण विश्वास रहा है कि अहिँसा का अत्याधिक प्रचार हिन्दू जाति को अत्यन्त निर्बल बना देगा और अंत मेँ यह जाति ऐसी भी नहीँ रहेगी कि वह दूसरी जातियोँ से, विशेषकर मुसलमानोँ के अत्याचारोँ का प्रतिरोध कर सके ।
हम लोग गांधीजी की अहिँसा के विरोधी ही नहीँ थे, प्रत्युत इस बात के अधिक विरोधी थे कि गांधीजी अपने कार्यो और विचारोँ मेँ मुस्लिमोँ का अनुचित पक्ष लेते थे और उनके सिद्धांतोँ व कार्यो से हिन्दू जाति की अधिकाधिक हानि हो रही थी ।
मालाबार, नोआख्याली, पंजाब, बंगाल, सीमाप्रांत मेँ हिन्दुओँ पर अत्याधिक अत्याचार हुयेँ । जिसको मोपला विद्रोह के नाम से जाना जाता है । उसमेँ हिन्दुओँ की संपत्ति, धन व जीवन पर सबसे बडा हमला हुआ । हिन्दुओँ को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया, स्त्रियोँ के अपमान हुये । गांधीजी अपनी नीतियोँ के कारण इसके उत्तरदायी थे, मौन रहे । प्रत्युत यह कहना शुरु कर दिया कि मालाबार मेँ हिन्दुओँ को मुसलमान नहीँ बनाया गया ।यद्यपि उनके मुस्लिम मित्रोँ ने यह स्वीकार किया कि सैकडोँ घटनाऐँ हुई है । और उल्टे मोपला मुसलमानोँ के लिए फंड शुरु कर दिया ।
कांग्रेस ने गांधीजी को सम्मान देने के लिए चरखे वाले ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाया ।प्रत्येक अधिवेशन मेँ प्रचुर मात्रा मेँ ये ध्वज लगाये जाते थे । इस ध्वज के साथ कांग्रेस का अति घनिष्ट सम्बन्ध था । नोआख्याली के 1946 के दंगोँ के बाद वह ध्वज गांधीजी की कुटिया पर भी लहरा रहा था, परन्तु जब एक मुसलमान को ध्वज के लहराने पर आपत्ति हुई तो गांधी ने तत्काल उसे उतरवा दिया । इस प्रकार लाखोँ - करोडोँ देशवासियोँ की इस ध्वज के प्रति श्रद्धा को गांधी ने अपमानित किया । केवल इसलिए की ध्वज को उतारने से एक मुसलमान खुश होता था ।
कश्मीर के विषय मेँ गांधी हमेशा यह कहते रहे की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौप दी जाये, केवल इसलिए की कश्मीर मेँ मुस्लिम है । इसलिए गांधीजी का मत था कि महाराजा हरिसिँह को संन्यास लेकर काशी चले जाना चाहिए, परन्तु हैदराबाद के विषय मेँ गांधी की नीति भिन्न थी । यद्यपि वहाँ हिन्दूओँ की जनसंख्या अधिक थी, परन्तु गांधीजी ने कभी नहीँ कहा की निजाम फकीरी लेकर मक्का चला जायेँ ।
जब खिलापत आंदोलन असफल हो गया तो मुसलमानोँ को बहुत निराशा हुई और अपना क्रोध हिन्दुओँ पर उतारा । गांधीजी ने गुप्त रुप से अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण दिया, जो गांधीजी के लेख के इस अंश से सिद्ध हो जाता है - " मैँ नही समझता कि जैसे खबर फैली है, अली भाईयोँ को क्योँ जेल मेँ डाला जायेगा और मैँ क्योँ आजाद रहूँगा ? उन्होँने ऐसा कोई कार्य नही किया है जो मैँ न करु ।यदि उन्होँने अमीर अफगानिस्तान को आक्रमण के लिए संदेश भेजा है, तो मैँ भी उनके पास संदेश भेज दूँगा कि जब वो भारत आयेँगे तो जहाँ तक मेरा बस चलेगा एक भी भारतवासी उनको हिन्द से निकालने मेँ सरकार की सहायता नहीँ करेगा ।"
मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए गांधी ने एक मुसलमान के द्वारा भूषण कवि के विरुद्ध पत्र लिखने पर उनकी अमर रचना शिवबवनी पर रोक लगवा दी, जबकि गांधी ने कभी भी भूषण का काव्य या शिवाजी की जीवनी नहीँ पढी । शिवबवनी 52 छंदोँ का एक संग्रह है जिसमेँ शिवाजी महाराज की प्रशंसा की गयी है । इसके एक छंद मेँ कहा गया है कि अगर शिवाजी न होते तो सारा देश मुसलमान हो जाता । गांधीजी को ज्ञात हुआ कि मुसलमान वन्दे मातरम् पसंद नही करते तो जहाँ तक सम्भव हो सका गांधीजी ने उसे बंद करा दिया ।
राष्ट्रभाषा के विषय पर जिस तरह से गांधी ने मुसलमानोँ का अनुचित पक्ष लिया उससे उनकी मुस्लिम समर्थक नीति का भ्रष्ट रुप प्रगट होता था । किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि इस देश की राष्ट्रभाषा बनने का अधिकार हिन्दी को है । गांधीजी ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत मेँ हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन दिया । लेकिन जैसे ही उन्हेँ पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नही करते, तो वे उन्हेँ खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी का प्रचार करने लगे । बादशाह राम, बेगम सीता और मौलवी वशिष्ठ जैसे नामोँ का प्रयोग होने लगा । मुसलमानोँ को खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी (हिन्दी और उर्दु का वर्ण संकर रुप) स्कूलोँ मेँ पढाई जाने लगी । इसी अवधारणा से मुस्लिम तुष्टिकरण का जन्म हुआ जिसके मूल से ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ है ।
गांधीजी का हिन्दू मुस्लिम एकता का सिद्धांत तो उसी समय नष्ट हो गया जिस समय पाकिस्तान बना । प्रारम्भ से ही मुस्लिम लीग का मत था कि भारत एक देश नही है । हिन्दू तो गांधी के परामर्श पर चलते रहे किन्तु मुसलमानोँ ने गांधी की तरफ ध्यान नही दिया और अपने व्यवहार से वे सदा हिन्दुओँ का अपमान तथा अहित करते रहे । अंत मेँ देश का दो टुकडोँ मेँ विभाजन हो गया और भारत का एक तिहाई हिस्सा विदेशियोँ की भूमि बन गया ।
32 वर्षो से गांधीजी मुसलमानोँ के पक्ष मेँ कार्य कर रहे थे और अंत मेँ उन्होँने जो पाकिस्तान को 55 करोड रुपये दिलाने के लिए धूरर्ततापूर्ण अनशन करने का निश्चय किया, इन बातोँ ने मुझे गांधी वध करने का निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया । 30 जनवरी 1948 को बिडला भवन की प्रार्थना सभा मेँ देश की रक्षा के लिए मैने गांधी को गोली मार दी ।
क्रमश ......
विश्वजीतसिंह
http://vishwajeetsingh1008.blogspot.com/2010/12/2.हटमल





Ankit.....................the real scholar ने कहा…
एक तथ्य मैं और बताना चाहूँगा की हैदराबाद के निजाम ने हिन्दुओं पर जजिया लगा दिया था | तब श्री नाथूराम विनायक गोडसे जी के नेतृत्व में आन्दोलनकारियों का पहला दल हैदराबाद गया था और उन्ही के न्दोलन के कारन हैदराबाद के निजाम को जजिया वापस लेना पड़ा था |
vishwajeetsingh ने कहा…
बेनामी भाई यदि आप इतिहास की सच्चाई को निश्पक्ष रूप से स्वीकार करने की शक्ति रखते हो तो सुनो ... आज का लालकिला सन 1060 में अनंगपाल द्वितीय द्वारा निर्मित " लालकोट " है । मुगलकाल में शहाजहाँ के चाटुकारों ने इसके नाम से ' कोट ' शब्द को हटाकर ' किला ' थोप दिया था । यदि लालकिले का ईमानदारी पूर्वक पुरातत्त्वीय सर्वेक्षण किया जाए तो सच सामने आ जायेगा ।
शहाजहाँ एक अरब साम्राज्य वादी धर्मान्ध मुगल था । उसने गैर मुस्लिमों के अनेकों पूजा स्थलों और भवनों को तुडवाया था , यह बाते उसके अपने दरबारी लेखक द्वारा रचित ' बादशाहनामा ' में स्पष्ट लिखी है ।
लाल किले के ' खास महल ' में सूअर के मुख वाले चार नल आज भी देखे जा सकते है । मुगलों को सूअरों से कितनी घृणा होती है यह सभी जानते है परन्तु हिन्दुओं के लिए सूअर स्नेह का पात्र है क्योंकि वे विष्णु भगवान के वराह अवतार की पूजा करते है । क्या यह लालकिले के हिन्दू मूल का प्रमाण नहीं है ?
बेनामी भाई आखिर हम कब तक विदेशी आक्रांताओं के नाम पर अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को विकृत करते रहेंगे , आप यह क्यों नहीं सोचते कि भारत के मुसलमान अत्याचारी मतान्ध औरंगजेब की सन्तान न होकर इब्राहीम गारदी , अशफाक उल्ला खाँ और महाराणा प्रताप की सन्तान है , तुम्हारे आदर्श अरब के आक्रांता न होकर राम , कृष्ण , गोबिंद सिंह और शिवाजी है ।

बुधवार, १५ दिसम्बर २०१०


अखण्ड भारत के स्वप्न द्रष्टा - वीर नाथूराम गोडसे भाग - 3





http://vishwajeetsingh1008.blogspot.com/2010/12/3.html



पिछले दो भागोँ मेँ आपने श्री नाथूरामजी गोडसे द्वारा गांधीजी का वध करने के प्रमुख कारणोँ को पढा,अब आगे ......
वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैने गांधी वध का निर्णय लिया था । गांधी और मेरे जीवन के सिद्धांत एक है, हम दोनोँ ही इस देश के लिए जीये,गांधीजी ने उन सिद्धांतोँ पर चलकर अपने जीवन का रास्ता बनाया और मैने अपनी मौत का । गांधी वध के पश्चात मैँ समाधि मेँ हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ ।
मैँ मानता हूँ कि गांधीजी एक सोच है, एक संत है, एक मान्यता है और उन्होँने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए । जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नही था । किसी का वध करना हमारे धर्म मेँ पाप है, मै जानता हूँ कि इतिहास मेँ मुझे अपराधी समझा जायेगा लेकिन हिन्दुस्थान को संगठित करने के लिए गांधी वध आवश्यक था । मैँ किसी प्रकार की दया नही चाहता हँ । मैँ यह भी नही चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ ।
यदि देशभक्ति पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैने किया है ।यदि पुण्य है तो उससे अत्पन्न पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेरे काम को अपराध नही माना जायेगा । मैने देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया ! मैने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओँ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए !!
मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ' नीति की दृष्टि ' से पूर्णतया उचित है । मुझे इस बात मेँ लेशमात्र भी सन्देह नही की भविष्य मेँ किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे ।
मोहनदास गांधीजी की हत्या करने के कारण नाथूराम गोडसेजी एवँ उनके मित्र नारायण आपटेजी को फाँसी की सजा सुनाई गई थी । न्यायालय मेँ जब गोडसे को फाँसी की सजा सुनाई गई तो पुरुषोँ के बाजू फडक रहे थे, और स्त्रियोँ की आँखोँ मेँ आँसू थे । नाथूराम गोडसे व नारायण आपटे को 15 नवम्बर 1949 को अम्बाला (हरियाणा) मेँ फासी दी गई । फाँसी दिये जाने से कुछ ही समय पहले नाथूराम गोडसे ने अपने भाई दत्तात्रेय को हिदायत देते हुए कहा था, कि
" मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धू नदी मेँ ही उस समय प्रवाहित करना जब सिन्धू नदी एक स्वतन्त्र नदी के रुप मेँ भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमेँ कितने भी वर्ष लग जायेँ, कितनी ही पीढियाँ जन्म लेँ, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना ।"
श्रीनाथूराम गोडसे ने तो न्यायालय से भी अपनी अन्तिम इच्छा मेँ सिर्फ यही माँगा था - " हिन्दुस्थान की सभी नदियाँ अपवित्र हो चुकी है, अतः मेरी अस्थियोँ को पवित्र सिन्धू नदी मेँ प्रवाहित कराया जाए ।"
वीर नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे ने वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुये फाँसी के फंदे को अखण्ड भारत का स्वप्न देखते हुये चुमा और देश के लिए आत्म बलिदान दे दिया ।
नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी अंतिम इच्छा को पूर्ण करना तो दूर उनकी राख भी उनके परिवार वालोँ को नहीँ सौँपी गई थी । जेल अधिकारियोँ ने अस्थियोँ और राख से भरा मटका रेलवे पुल के ऊपर से घग्गर मेँ फेँक दिया था । दोपहर बाद मेँ उन्ही जेल कर्मचारियोँ मेँ से किसी ने बाजार मेँ जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह सूचना स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई ।इन्द्रसेन उस समय ' द ट्रिब्यून ' के कर्मचारी भी थे । इन्द्रसेन तत्काल अपने दो मित्रोँ को साथ लेकर दुकानदार द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचेँ । उन दिनोँ घग्गर नदी मेँ उस स्थान पर बहुत ही कम पानी था । उन्होँने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर प्रोफेसर ओमप्रकाश कोहल को सौप दिया, जिन्होँने आगे उसे डाँ. एल वी परांजये को नाशिक मेँ ले जाकर सुपुर्द किया । उसके पश्चात वह अस्थिकलश 1965 मेँ नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे तक पहुँचाया गया, जब वे जेल से रिहा हुए । वर्तमान मेँ यह अस्थिकलश पूना मेँ उनके निवास पर उनकी अंतिम इच्छा पूरी होने की प्रतिक्षा मेँ रखा हुआ है ।
15 नवम्बर 1950 से अभी तक प्रत्येक 15 नवम्बर को महात्मा गोडसे का " शहीद दिवस " मनाया जाता है । सबसे पहले नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के चित्रोँ को अखण्ड भारत के चित्र के साथ रखकर फूलमाला पहनाई जाती है ।उसके पश्चात जितने वर्ष उनके आत्मबलिदान को हुए है उतने दीपक जलाये जाते है और आरती होती है । अन्त मेँ उपस्थित सभी लोग यह प्रतिज्ञा लेते है कि वे महात्मा गोडसेजी के " अखण्ड हिन्दुस्थान " के स्वप्न को पूरा करने के लिये काम करते रहेँगे । हमे पूर्ण विश्वास है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश एक दिन टुकडे- टुकडे होकर बिखर जायेगे और अन्ततः उनका भारत मेँ विलय होगा और तब गोडसेजी का अस्थिविर्सजन किया जायेगा ।
हमेँ स्मरण रखना होगा कि यहूदियोँ को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे, प्रत्येक वर्ष वे प्रतिज्ञा लेते थे कि अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा । इसी प्रकार हमेँ भी प्रत्येक 15 नवम्बर को अखण्ड भारत बनाने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिये ।
मेरा यह लेख लिखने का उद्देश्य किसी की भावनाओँ को ठेस पहुँचाना नहीँ, बल्कि उस सच को उजागर करना है, जिसे अभी तक इतिहासकार और भारत सरकार अनदेखा करती रही है । गांधीजी के बलिदान को नही भूला जा सकता है तो गोडसेजी के बलिदान को भी नही ।
वन्दे मातरम्
विश्वजीतसिँह


rupesh ने कहा…
महात्मा नाथूराम गोडसे ने जो किया वह उस समय की आवश्यकता थी भले ही आज हम इसे किसी भी रूप मेँ लेँ । महात्मा गोडसे ने देश के लिए गांधी वध के अलावा ओर भी बहुत सारे अच्छे काम किये थे । पूज्य महात्मा गोडसे जी ने छुआछुत और समाज मेँ फैली अन्य कुरीतियोँ के विरूद्ध भी जंग लडी थी । ऐसे महान क्रान्तिकारी के अस्थिकलश का भारत के झंडे तले बहने वाली सिन्धू नदी अर्थात अखण्ड भारत की सिन्धू नदी मेँ विसर्जन न किया जाना हम भारतीयोँ के लिए बडे ही दुःख और शर्म की बात हैँ ।
vishwajeetsingh ने कहा…
गांधी जी के बारे में अधिक सच्चाई जानने के इच्छुक प्रिय मित्रों महान साहित्यकार गुरूदत्त का साहित्य , गोडसे जी की पुस्तक गांधी वध क्यों , सत्यान्वेषी स्वामी शिवानन्द की पुस्तक गांधी और नेहरू भारत के लिए वरदान या अभिशाप आदि देश - विदेश के प्रमाणित लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया जा सकता हैं ।

नाथूराम गोडसे के शहीद दिवस 15 नवम्बर के अवसर पर, फाँसी लगने से 5 मिनट पूर्व दिया गया उनका दिव्य संदेश


http://vishwajeetsingh1008.blogspot.com/2010/11/15-5.html

वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैँने गाँधी जी पर गोली चलायी थी । मैँ मानता हूँ कि गाँधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए । जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीँ था । मैँ किसी प्रकार की दया नहीँ चाहता हूँ । मैँ यह भी नहीँ चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ । यदि अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैँने किया है । यदि वह पुण्य है तो उससे उत्पन्न पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है की मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेँरे कार्य को अपराध नही समझा जायेगा । मैँने देश और जाति की भलाई के लिए यह कार्य किया है ! मैँने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए ! मुझे इस बात मेँ लेशमात्र भी सन्देह नहीँ की भविष्य मे किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे । - नाथूराम गोडसे

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PRASHANT YOGI ने कहा…
अंतहीन चर्चा का विषय है !....लेकिन प्रश्न है की क्या गोली से गांधी मर गए?

अगर गांधी स्वाभाविक मौत ,या किसी लम्बी बीमारी से खाट पर सड़े मरते तो

शायद आज कम-स-कम नई नस्ल तो उन्हें भूल चुकी होती !गोडसे की गोली ने

गांधी के दर्शन, विचारधारा और गांधी को ज़िंदा कर दिया ! बड़ी भूल की !
vishwajeetsingh ने कहा…
आदरणीय योगी जी आपका कथन सत्य हैं कि श्री गोडसे जी ने गांधी जी का वध कर उन्हें अमर कर दिया । लेकिन यदि गोडसे गांधी वध न करते तो आज हैदराबाद भारत में न होता और भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी न होकर हिन्दुस्तानी ( उर्दू लिपि में लिखे जाने वाली ग्रामीण हिन्दी ) भाषा होती ।