Friday, September 24, 2010

श्रीराम जन्मभूमि


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वाद-विवाद खूबसूरत हल नहीं होता। संवाद सौहा‌र्द्र का पर्याय है। इसका कोई विकल्प नहीं होता। सर्वोच्च न्यायपीठ ने श्रीराम जन्मभूमि मुकदमे में परस्पर संवाद का एक अवसर और दिया है। न्यायिक कार्यवाही का आधार तत्समय प्रवृत्त विधि विधान और उपलब्ध साक्ष्य होते हैं। न्यायिक कार्यवाही की यही सीमा है। लेकिन आस्था की कोई सीमा नहीं होती। आस्था अंत:करण का असीम साक्ष्य है। भारतीय संविधान में अंत:करण की स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है। हिंदू अंत:करण में श्रीराम एक दिव्य गहन आस्था हैं, हिंदू विवेक में वे इतिहास पुरुष हैं, पुरुषों में सर्वोत्तम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। न्यायालय की सदेच्छा विचारणीय है। श्रीराम जन्मभूमि हिंदू आस्था है। दूसरा पक्ष यहां बाबरी मस्जिद मानता है। न्यायिक कार्यवाही से एक पक्ष जीतता है, दूसरा पराजित होता है। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से यह एक खतरनाक परिस्थिति है। सर्वोच्च न्यायालय ने 1994 में यही बात कही थी, यह ऐसा विषय है, जो अनिवार्य रूप से वार्ता के आधार पर सुलझाए जाने के सर्वथा उपयुक्त है। ऐसे में कोई भी पक्ष विजेता या पराजित नहीं होता, लेकिन न्यायिक निर्णय में एक पक्ष विजेता और दूसरा पराजित होता है। राष्ट्रहित की अपेक्षा है कि इस विवाद का समाधान इस तरह किया जाए जिसमें कोई भी पक्ष स्वयं को हारने वाला न समझे। यह वार्ता द्वारा ही संभव है। फिर वार्ता के निष्कर्ष के आधार पर मुकदमे के विषय में न्यायिक आदेश प्राप्त किया जा सकता है। जब तक सभी पक्षों को संतुष्ट करने का समाधान नहीं खोजा जाता तब तक सद्भावना का विकास नहीं होगा। एक ही राष्ट्र में विजित और विजेता की भावनाएं स्थायी शत्रुभाव बढ़ाएंगी। राष्ट्रभाव खंडित होगा। हिंदू मन ने मुसलमानों की हरेक भावना का सम्मान किया है। खलीफा का खात्मा तुर्की में हुआ था। महात्मा गांधी सहित भारत के हजारों हिंदू मुस्लिम भावना के साथ खिलाफत आंदोलन में कूदे थे। मुस्लिम लीग ने दो राष्ट्र बताए। कांग्रेसी नेताओं ने अलग मुल्क दे दिया। जिन्हें जाना था, वे पाकिस्तान गए, जो यहां रहे, हिंदुओं ने उन्हें अपना सगा भाई जाना। भारत एक संस्कृति के कारण एक राष्ट्र है। समान नागरिक संहिता राष्ट्र-राज्य की अनिवार्यता है। भारत ने इन्हीं की भावना का सम्मान किया और संप्रभु राष्ट्र-राज्य के इस मौलिक सिद्धांत से भी किनाराकशी की। शाहबानो मसले पर न्यायालय का निर्णय मुस्लिम भावनाओं के विपरीत था लेकिन बहुसंख्यक समुदाय ने इस्लामी भावना की कद्र की। बावजूद इसके वे विदेशी हमलावर के हुक्म से तोड़ा गया श्रीराम जन्मभूमि मंदिर भी देने को तैयार नहीं हैं। पांडव पांच गांव मांग रहे थे। विदुर जैसे नीतिकार, भीष्म पितामह जैसे योद्धा और स्वयं योगेश्वर कृष्ण भी न्याय नहीं दिला पाए। भारत में महाभारत हो गया। कौरव नष्ट हो गए। पांडव हिमालय जाने को अभिशप्त हुए। न ये जीते, न वे। राष्ट्र की अपूर्णीय क्षति हुई। दुनिया के किसी भी राष्ट्र-राज्य में आस्था पर चोट नहीं होती लेकिन हिंदू आस्था सातवीं सदी से ही हल्ले-हमले का शिकार है। हजारों मंदिरों का ध्वस्तीकरण इतिहास की साक्षी है। तलवार का भय, लोभ और षड्यंत्र का आस्था परिवर्तन भी ऐतिहासिक तथ्य है। दुनिया के सभी पंथ, मजहब और आस्था समूह अपनी आस्था मानने को स्वतंत्र हैं केवल हिंदू आस्था ही प्रश्नवाचक है। कश्मीर के मुट्ठी भर अलगाववादी गिरोहबंद होकर संप्रभु राष्ट्र-राज्य को ललकारते हैं। सरकार मिमियाती है, पूरा राजनीतिक तंत्र उनकी बात सुनने उनके घर पहुंच जाता हैं। लेकिन हिंदू मन विधि व्यवस्था और संविधान की सभी संस्थाओं को आदर देकर भी दोयम दर्जे का नागरिक है। न्यायालय से इस या उस पक्ष की जीत का कोई खास महत्व नहीं है। बुनियादी सवाल यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय की हरेक भावना का सम्मान करने वाले करोड़ों की आबादी वाले बहुसंख्यक समुदाय की आस्था का वैसा ही सम्मान अल्पसंख्यक समुदाय भी क्यों नहीं करता? न्यायपालिका काफी लंबे समय से परिश्रम कर रही है। लेकिन नतीजे विवादांत तक नहीं पहुंचे। सन 1885 में फैजाबाद कोर्ट में मालिकाना हक का मुकदमा हुआ। अंग्रेज जज चेमियर ने यथास्थिति का फैसला सुनाया। 1949-50 में फिर मुकदमा हुआ, 1955 फैसले में पूजापाठ का अधिकार बहाल रहा। 1959 में निर्मोही अखाड़े ने याचिका दी कि प्रतिवादी श्रीराम जन्मभूमि परिसर में दखल न दें। 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने मालिकाना दावा ठोक दिया। 1966 में इसे वक्फ संपति न मानने का आदेश हुआ। 1986 में जिला न्यायाधीश ने ताला खोलने के आदेश दिए। 1989 में श्रीराम के पक्ष में मालिकाना हक का मुकदमा हुआ। 1989 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सभी पांच मुकदमों को तीन न्यायाधीशों की एक बेंच को सौंपा। उच्च न्यायालय की विशेष बेंच ने 7 नवंबर, 1989 को बहुत महत्वपूर्ण बात कही, इसमें संदेह है कि इससे जुड़े कुछ प्रश्नों का समाधान न्यायिक प्रक्रिया से निकल सकता है। फिर जमीन अधिग्रहण हुआ। हाईकोर्ट ने अंतरिम आदेश में अधिग्रहण को उचित ठहराया। फिर 6 दिसंबर, 1992 की बड़ी घटना हो गई। जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट (1724-1804) ने लिखा था, ज्ञान संवेदन से प्रारंभ होता है। बोध शक्ति की ओर प्रगति करता है और तर्कबुद्धि में समाप्त हो जाता है। आस्था तर्कातीत है। तौरात यहूदी आस्था है। इनजील की बाबत ऐसी ही ईसाई आस्था है। बाइबिल भी अत‌र्क्य है। कुरान इस्लामी आस्था है। प्रभु यीशु के जन्म स्थान बेथलहम में निर्मित चर्च के मुख्य पादरी से एक भारतीय पत्रकार ने पूछा कि इस बात का क्या प्रमाण है कि यीशु ने यहीं जन्म लिया था? उसने उत्तर दिया ऐसा हमारा विश्वास है और यही लोक आस्था है। बेथलहम अत‌र्क्य रूप में यीशु का जन्म स्थान है लेकिन भौतिकवादी ईश्वर नहीं मानते। आस्था है कि कुरान ईश्र्वरीयवाणी है। लेकिन खांटी मा‌र्क्सवादी भी कुरान के बारे में ऐसा प्रश्न नहीं करते। आस्थाओं पर तर्क नहीं होते, लेकिन श्रीराम जन्मभूमि की हिंदू आस्था को चुनौती है। हम भारत के लोग एक संप्रभु राष्ट्र हैं। बेशक यहां भावात्मक श्रद्धा है, लेकिन भावात्मक एकता का क्या होगा? भावात्मक एकता के लिए एकदूसरे की भावनाओं का सम्मान जरूरी है। हिंदू आहत हैं। राजनीति उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक मानती है। मुस्लिम सर्वोपरिता की नारेबाजी है। विद्वान उलेमा और मुस्लिम बुद्धिजीवी हिंदू भावनाओं को समझने का प्रयास करें। आहत हिंदू मन की व्यथा सुनें। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए अवसर का सदुपयोग करें। वाद-विवाद को संवाद में बदलें। श्रीराम जन्मभूमि राष्ट्र की भावात्मक एकता का प्रश्न है। हिंदू-मुसलमान के पूर्वज एक हैं। भूगोल और इतिहास भी एक है। भारत को विश्व में प्रथम श्रेणी का राष्ट्र बनाने का लक्ष्य भी एक है, लेकिन भावात्मक एकता के बीच दीवारें हैं। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर विवाद का आपसी हल ही मजबूत राष्ट्र की गारंटी है।

Tuesday, September 14, 2010

मैं आप सबकी हूँ : हिन्दी मैं झगड़ों की भाषा नहीं हूँ

मैं हिन्दी हूँ। बहुत दुखी हूँ। स्तब्ध हूँ। समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ? कैसे शुरू करूँ? मैं, जिसकी पहचान इस देश से है, इसकी माटी से है। इसके कण-कण से हैं। रोज अपने ही आँगन में बेइज्जत की जा रही हूँ। कहने को संविधान के अनुच्छेद 343 में मुझे राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह मेरा प्रसार बढ़ाएँ। पर आज यह सब मुझे क्यों कहना पड़ रहा है?

मन बहुत दुखता है जब मुझे अपनी ही संतानों को यह बताना पड़े कि मैं भारत के 70 प्रतिशत गाँवों की अमराइयों में महकती हूँ। मैं लोकगीतों की सुरीली तान में गुँजती हूँ। मैं नवसाक्षरों का सुकोमल सहारा हूँ। मैं जनसंचार का स्पंदन हूँ। मैं कलकल-छलछल करती नदियाँ की तरह हर आम और खास भारतीय ह्रदय में प्रवाहित होती हूँ। मैं मंदिरों की घंटियों, मस्जिदों की अजान, गुरुद्वारे की शबद और चर्च की प्रार्थना की तरह पवित्र हूँ। क्योंकि मैं आपकी, आप सबकी-अपनी हिन्दी हूँ।


NDविश्वास करों मेरा कि मैं दिखावे की भाषा नहीं हूँ, मैं झगड़ों की भाषा भी नहीं हूँ। मैंने अपने अस्तित्व से लेकर आज तक कितनी ही सखी भाषाओं को अपने आँचल से बाँध कर हर दिन एक नया रूप धारण किया है। फारसी, अरबी, उर्दू से लेकर 'आधुनिक बाला' अंग्रेजी तक को आत्मीयता से अपनाया है। सखी भाषा का झगड़ा मेरे लिए नया नहीं है।

पहले भी मेरी दक्षिण भारतीय 'बहनों' की संतानों ने यह स्वर उठाया था, मैंने हर बार शांत और धीर-गंभीर रह कर मामले को सहजता से सुलझाया है। लेकिन इस बार मेरी अनन्य सखी मराठी की संतानें मेरे लिए आतंक बन कर खड़ी है। इस समय जबकि सारे देश में विदेशी ताकतों का खतरा मँडरा रहा है, ऐसे में आपसी दीवारों का टकराना क्या उचित है?

लेकिन कैसे समझाऊँ और किस-किस को समझाऊँ? मैं क्या कल की आई हुई कच्ची-पक्की बोली हूँ जो मेरा नामोनिशान मिटा दोगे? मैं इस देश के रेशे-रेशे में बुनी हुई, अंश-अंश में रची-बसी ऐसी जीवंत भाषा हूँ जिसका रिश्ता सिर्फ जुबान से नहीं दिल की धड़कनों से हैं। मेरे दिल की गहराई का और मेरे अस्तित्व के विस्तार का तुम इतने छोटे मन वाले भला कैसे मूल्यांकन कर पाओगे? इतिहास और संस्कृ‍ति का दम भरने वाले छिछोरी बुद्धि के प्रणेता कहाँ से ला सकेंगे वह गहनता जो अतीत में मेरी महान संतानों में थी।


NDमैंने तो कभी नहीं कहा कि बस मुझे अपनाओ। बॉलीवुड से लेकर पत्रकारिता तक और विज्ञापन से लेकर राजनीति तक हर एक ने नए शब्द गढ़े, नए शब्द रचें, नई परंपरा, नई शैली का ईजाद किया। मैंने कभी नहीं सोचा कि इनके इस्तेमाल से मुझमें विकार या बिगाड़ आएगा। मैंने खुले दिल से सब भाषा का,भाषा के शब्दों का, शैली और लहजे का स्वागत किया। यह सोचकर कि इससे मेरा ही विकास हो रहा है। मेरे ही कोश में अभिवृद्धि हो रही है। अगर मैंने भी इसी संकीर्ण सोच को पोषित किया होता कि दूसरी भाषा के शब्द नहीं अपनाऊँगी तो भला यहाँ तक उद्दाम आवेग से इठलाती-बलखाती कैसे पहुँच पाती?

मैंने कभी किसी भाषा को अपना दुश्मन नहीं समझा। किसी भाषा के इस्तेमाल से मुझमें असुरक्षा नहीं पनपी। क्योंकि मैं जानती थी कि मेरे अस्तित्व को किसी से खतरा नहीं है। महाराष्ट्र की घटनाओं से एक पल के लिए मेरा यह विश्वास डोल गया।

पिछले दिनों मैं और मेरी सखी भाषाएँ मिलकर त्रिभाषा फार्मूला पर सोच ही रही थी। लेकिन इसका अर्थ यह तो कतई नहीं था कि हमारी संतान एक-दूसरे के विरुद्ध नफरत के खंजर निकाल लें। यह कैसा भाषा-प्रेम है? यह कैसी भाषाई पक्षधरता है? क्या 'माँ' से प्रेम दर्शाने का यह तरीका है कि 'मौसी' की गोद में बैठने पर अपने ही भाई के मुँह पर तमाचा मार दो? क्या लगता है आपको, इससे 'मराठी' खुश होगी? नहीं हो सकती। हम सारी भाषाएँ संस्कृत की बेटियाँ हैं। बड़ी बेटी का होने का सौभाग्य मुझे मिला, लेकिन इससे अन्य भाषाओं का महत्व कम तो नहीं हो जाता। पर यह भी तो सच है ना कि मुझे अपमानित करने से मराठी का महत्व बढ़ तो नहीं जाएगा?

यह कैसा भाषा गौरव है जो अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए स्थापित भाषा को उखाड़ देने की धृष्टता करें। मुझे कहाँ-कहाँ पर प्रतिबंधित करोगे? ‍पूरा महाराष्ट्र तो बहुत दूर की बात है अकेली मुंबई से मुझे निकाल पाना संभव नहीं है। बरसों से भारतीय दर्शकों का मनोरंजन कर रही फिल्म इंडस्ट्री से पूछ कर देख लों कि क्या मेरे बिना उसका अस्तित्व रह सकेगा? कैसे निकालोगे लता के सुरीले कंठ से, गुलजार की चमत्कारिक लेखनी से? अपनी सोच को थोड़ा सा विस्तार दो, मैं तो सबकी हूँ। और रहूँगी। मेरा जीते जी श्राद्ध नहीं मनाओ। पुण्यतिथि नहीं मनाओ, हो सके तो मुझे दिल में बैठाओं।
आज बस इतना ही,

आप सबकी
हमेशा-सी,
हिन्दी