Saturday, January 29, 2011

धर्मग्रंथों पर धारणा की चोट


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धर्मग्रंथों पर धारणा की चोट
Sep 09, 11:24 am


नई दिल्ली [शंकर शरण]। शिकागो विश्वविद्यालय की प्रोफेसर वेंडी डोनीजर की लिखी पुस्तक 'द हिंदूज: ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री' आजकल चर्चा में है। पुस्तक के चर्चा में आने की वजह कोई स्तरीय या शोधपरक लेखन नहीं, बल्कि हिंदू धर्मग्रंथों और आख्यानों के चुने हुए प्रसंगों की व्याख्या काम भाव की दृष्टि से किया जाना है।

उदाहरण के लिए इस पुस्तक में लिखा गया है कि रामायण में उल्लिखित राजा दशरथ कामुक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और बुढ़ापे में भी कैकेयी जैसी जवान पत्नी के साथ वह रंगरेलियों में डूबे रहते थे। इसमें लिखा गया है कि कैकेयी के इशारे पर ही राजा दशरथ ने अपने बेटे राम को जंगल में भेज दिया ताकि कोई रुकावट न रहे।

पुस्तक के मुताबिक राम और लक्ष्मण दोनों ने ही अपने पिता को कामुक बूढ़ा कहा था। वेंडी ने लिखा है कि जंगल में रहते हुए लक्ष्मण के मन में भी सीता के प्रति कामभावना पैदा हुई थी और राम ने इस बारे में लक्ष्मण से सवाल भी किया था। इसी तरह महाभारत की कथा के बारे में भी वेंडी ने अपने मनमुताबिक व्याख्या दी है। जैसे कुंती द्वारा सूर्य के साथ नियोग से प्राप्त पुत्र के बारे में लिखा गया है कि सूर्य देवता ने कुंती के साथ बलात्कार किया जिससे 'कर्ण' नामक अवैध संतान पैदा हुई।

पुस्तक में भारतीय धर्मग्रंथों के कुछ चुने हुए प्रसंगों की कामुक व्याख्या करके एक वैकल्पिक इतिहास लिखने की कोशिश की गई है। यह केवल प्राचीन ग्रंथों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें राजनीतिक घटनाक्रमों को भी कुछ इसी तरह घसीटा गया है। गांधी की रामराज्य की कल्पना को भारत में मुसलमानों और ईसाइयों से छुटकारा पाने और हिंदू राज्य की स्थापना से जोड़ा गया है।

वेंडी ने ऐसा लेखन पहली बार नहीं किया है। हिंदू चिंतन, मनीषा और इतिहास पर वह पिछले तीन दशक से इसी तरह का लेखन करती रही हैं। हमारे बुद्धिजीवियों को भी पश्चिमी भक्ति के कारण पर्याप्त आदर और सम्मान मिलता रहा है। जिस लेखन को किसी अन्य धर्म अथवा मत के लोग घृणा या क्षोभ से देखते हैं उसे पश्चिम के रेडिकल प्रोफेसर एक नई व्याख्या के रूप में सम्मान देते हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा लेखन यदि इस्लामी प्रसंगों पर कोई करे तो उसे एंटी मुस्लिम और घोर साप्रदायिक कहकर प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है। विडंबना यह है कि यह लोग भी वही होते हैं जो जो हिंदू ग्रंथों और महापुरुषों पर कालिख पोतने का हर तरीके से समर्थन करते हैं। यह कार्य केवल बयान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि जुलूस और प्रदर्शन तक किए जाते है।

जेम्स लेन की पुस्तक में छत्रपति शिवाजी के गंदे चित्रण का समर्थन करते हुए यही किया गया था। सच्चाई तो यही है कि वेंडी डोनीजर या जेम्स लेन जैसे लेखक भारत में भी हैं। इतिहासकार डी एन झा ने लिखा है कि कृष्ण का चाल-चलन अच्छा नहीं था। साहित्यकार राजेंद्र यादव ने राम को युद्धलिप्साग्रस्त साम्राज्यवादी तथा हनुमान को पहला आतंकवादी तक बताया। रोमिला थापर ने सनातन हिंदू धर्म को नकारते हुए इसे ब्राह्मणवाद घोषित करते हुए व्याख्या दी कि यह निम्न जातियों के शोषण और दमन करने की विचारधारा है।

इधर एक नेता ने उसी भाव से द्रौपदी नामक उपन्यास लिखा। ऐसे अधिकाश लेखक हिंदू परिवारों में ही पैदा हुए, लेकिन वास्तव में यह धर्महीन हो चुके लेखक ही हैं। इनका मुख्य लक्ष्य हिंदू धर्म चिंतन और महापुरुषों को लाछित करके नाम कमाना है। विडंबना यह है कि इन सबको भारत में मान-सम्मान भी मिलता रहा है। यह एक सच्चाई है कि आजाद भारत में हिंदू मनीषा के साथ दोहरा अन्याय होता रहा है। वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों को उतना सम्मान नहीं मिल पाया जितना मिलना चाहिए था। यदि इन्हें कुरान, बाइबिल की तरह धर्म-पुस्तक गया होता तो इस तरह घृणा फैलाने का दुस्साहस शायद ही कोई करता। तब राम, कृष्ण को केवल ईश्वरीय आदर दिया जाता जैसा कि पैगंबर मुहम्मद या ईसामसीह को दिया जाता है। दर्शनशास्त्र, राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास जैसे पाठ्यक्रमों में पश्चिमी विचारों की बहुलता दिखती है।

उपनिषद दर्शनशास्त्र का विश्वकोष है, किंतु भारत में दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी अरस्तू, काट, मा‌र्क्स, फूको, देरिदा आदि को ही पढ़ता है। महाभारत राजनीति और नैतिकता की अद्भुत पुस्तक होने के बावजूद औपचारिक शिक्षा से बहिष्कृत है। यह सब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किया जाता है। तर्क दिया जाता है कि यदि इन्हें पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाया जाएगा तो बाइबिल, कुरान, हदीस को भी शामिल करना पड़ेगा।

जब वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, नीतिशतक को धर्मपुस्तक का आदर देने की बात हो इन्हें गल्प साहित्य मानकर मनमाने आलोचना का शिकार बनाया जाता है। अपनी मूल्यवान थाती का ऐसा निरादर शायद ही दुनिया में कहीं और हुआ हो। भारत में हिंदू ग्रंथों के साथ हो रहे इस दोहरे अन्याय को ईसाइयत के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। सुपरस्टार के रूप में जीसस क्राइस्ट और द विंसी कोड जैसे उदाहरणों से स्पष्ट है यूरोपीय अमेरिकी समाज बाइबिल और ईसाई कथा-प्रसंगों की आलोचनात्मक व्याख्या सहता है, साथ ही ईसाइयत का पूरा चिंतन, चर्च और वेटिकन के विचार-भाषण-प्रस्ताव आदि यूरोप की शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग भी हैं और वह औपचारिक शिक्षा की प्रणाली से बाहर नहीं है।

ईसाइयत संबंधी धर्मशिक्षा पश्चिम में उसी तरह स्थापित हैं जैसे भौतिकी, रसायन या अर्थशास्त्र आदि हैं। इन्हें पढ़कर हजारों युवा उसी तरह वहां के कालेजों, विश्वविद्यालयों से हर वर्ष स्नातक होते हैं जैसे कोई अन्य विषय पढ़कर। तदनुरूप उनकी विशिष्ट पत्र-पत्रिकाएं, सेमिनार सम्मेलन आदि भी होते हैं। ईसाइयत संबंधी विमर्श, शोध, चिंतन के अकादमिक जर्नल्स आक्सफोर्ड और सेज जैसे प्रमुख अकादमिक प्रकाशनों से प्रकाशित होते हैं। ऐसा इक्का-दुक्का नहीं, बल्कि अनगिनत होता है।

यदि यूरोपीय जगत ईसा और ईसाइयत की कथाओं और ग्रंथों की आलोचनात्मक व्याख्या को स्थान देता है तो साथ ही धर्मग्रंथों के संपूर्ण अध्ययन को एक विषय के रूप में सम्मानित आसन भी देता है। स्वयं वेंडी डोनीजर शिकागो विश्वविद्यालय के डिविनिटी स्कूल में प्रोफेसर हैं। हालांकि भारतीय विश्वविद्यालयों में ऐसा कोई विभाग ही नहीं होता।

भारत में इसके ठीक विपरीत धर्म और उसके नाम पर सभी हिंदू ग्रंथों और चिंतन के अगाध भंडार को औपचारिक शिक्षा से बाहर रखा गया है। यहां यह जानने योग्य है कि मैक्सवेबर जैसे महान विद्वान ने भी भगवद्गीता को राजनीति और नैतिकता के अंत:संबंध पर पूरे विश्व में एकमात्र सुसंगत पाठ्यसामग्री माना है, किंतु क्या मजाल कि भारत में राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों को इसे पढ़ाने की अनुमति दी जाए। यह तो एक उदाहरण है।

वास्तव में यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम की तुलना में हिंदू चिंतन कहीं ज्यादा गहन है। समाज विज्ञान का कोई भी ऐसा विषय नहीं है जिसके समुचित अध्ययन के लिए हमें हिंदू ग्रंथों से मदद न मिल सके। इस सबके बावजूद समाज विज्ञान विभागों में या फिर अलग विधा के विषय के रूप में भारत में कोई अकादमिक संस्थान या स्थान नहीं बनाया गया है।

यही कारण है कि गीता प्रेस, गोरखपुर के संपूर्ण कार्यो को अकादमिक जगत उपेक्षा से देखता है। मानो वह आधुनिक समाज से कटे हुए वृद्ध पुरुषों-महिलाओं और अशिक्षितों के पढ़ने के लिए सतही व अंधविश्वासी चीजें हों।

यदि इन बातों पर सगग्रता में विचार किया जाए तो पाएंगे कि आजाद भारत में हिंदू मनीषा के साथ किस तरह दोहरा अन्याय हुआ है। यहां यह कहना गलत न होगा कि ऐसा करने के लिए आजाद भारत के शासकों और नीति-निर्माताओं ने जनता से कभी कोई जनादेश तो लिया नहीं है। यह सब चुपचाप एक चिरस्थापित औपनिवेशिक मानसिकता के तहत अभी तक चल रहा है। भारतीयों पर यह मानसिकता हजारों वर्षो की गुलामी में विदेशी शासकों ने जबरन थोपी। जिसमें हर स्वदेशी चीज खराब मानी जाती है और हर पश्चिमी चीज अच्छी।

पश्चिमी लेखक वेंडी डोनीजर को सम्मान और भारतीय हनुमान प्रसाद पोद्दार का बहिष्कार इसका स्पष्ट प्रमाण है।

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1 comment:

Anonymous said...

मन्थन जी
लगता है इन लेखकों को उनके अपने जान पहचान के हिन्दू भाईयों ने बहुत बुरी तरह सताया है तभी इतनी मेहनत करके हिन्दी/संस्कृत के शब्दों को इच्छानुसार संधिविच्छेद द्वारा तोड़ मरोड़कर, संदर्भो को छिपा उनके अर्थ का अनर्थ बनाकर इतनी मोटी पुस्तकें लिख मारी हैं। दुर्भाग्यवश हिन्दी/संस्कृत में ये अत्यंत सरल है संस्कृत एवं हिन्दी का कोई भी उत्तम छात्र मेरी इस बात से सहमत होगा। संदर्भो को छिपाने से मेरा तात्पर्य क्या है,यह स्पष्ट करने के लिए मैं मानस का एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ -
सपनेहु बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥
अब यदि सन्दर्भ न बताये तो यह कह सकते हैं कि लंका तो सपने में जली थी हनुमान जी ने तो जलाई नहीं। परन्तु यदि सन्दर्भ के साथ पढ़ें तो अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि ये सपना लंका के जलने से पहले देखा गया था और लंका बाद में जली।
हम सब जानते हैं कि इस प्रकार के लेखक अपने इस दुराग्रहपूर्ण घ्रणित प्रयास में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि स्वयं परमपितापरमात्मा को भी अपने व्यंगबाणों, अपनी गालियों से लांछित करने बाज नहीं आते। कोई भी हिन्दी/संस्कृत भाषाविद इन्हीं लेखकों के ढंग से यदि चाहे तो इन्हीं लेखकों द्वारा उद्धवरित वाक्यों श्लोकों की व्याख्या कर एवं इन पुस्तकों में उसी उदाहरण का अलग अलग स्थानों पर भिन्न अर्थ लिखने का प्रश्न उठा कर आसानी से पूरी पुस्तक का खंडन कर सकता है । परन्तु ऐसा करने से इन अवांछनीय पुस्तकों को व्यर्थ का प्रचार मिलता है। मेरा अन्य पाठको से भी यही अनुरोध है कि इन पुस्तकों की चर्चा करके इन्हें एवं इनके लेखकों को व्यर्थ का प्रचार न दें। सनातन(या तथाकथित हिन्दू) धर्म एवं धर्मावलम्बियों को अपने धर्म को या अपने आपको प्रमाणित करने अथवा इन पुस्तकों की चिन्ता करने की आवश्यकता ही नहीं है।
हाँ ये सच है कि हमारे सरल स्वभाव के कारण हमे समय समय पर चोटें जरूर लगती रहती हैं । अपने इस कथन को सिद्ध करने के लिए मुझे किसी प्रमाण की भी आवश्यकता नहीं है । उदाहरण प्रस्तुत है -
1. सनातन(या तथाकथित हिन्दू) धर्म में कही अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ नहीं बताया गया है बल्कि सर्वधर्म समान एवं वन्दनीय बताये गए हैं हमारे घरों में कभी पुरोहित द्वारा पूजा, हवन इत्यादी की समाप्ति के समय पुरोहित द्वारा इस प्रकार की( सर्वधर्म समान एवं वन्दनीय ) की स्तुति सदैव की जाती है ।
२. सनातन/हिन्दू धर्मावलम्बियों ने कभी अपने आपको सर्वश्रेष्ठ तथा दूसरो को निकृष्ट नहीं माना इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि हमने कभी दूसरे धर्मावलम्बियों को धर्म परिवर्तन हेतु आकृष्ट करने का प्रयत्न नहीं किया।
३. सनातन/हिन्दू धर्मावलम्बियों के सरल स्वभाव एवं सीधे होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि इन पुस्तकों पर किसी प्रकार का हो हल्ला नहीं है जबकि यदि किसी अन्य धर्म के बारे में किसी लेखक ने ऐसी घृणा अपनी पुस्तक में उड़ेली होती तो उसे लेने के देने पड़ जाते (सलमान रुश्दी का उदाहरण विश्व के सामने है)।

इन सब बातों के होते हुए भी अनादिकाल से हम और हमारे धर्म का अस्तित्व ज्यों का त्यों है। यही हम और हमारे धर्म की सुदृढ़ नीव एवं सामाजिक प्रासंगिकता का सबसे बड़ा प्रमाण है। जागरूक धर्मगुरुओं द्वारा समय के साथ आधुनिकीकरण होते रहने के कारण हमें कभी नही लगा कि हमारा धर्म खतरे में है।
ऊपर मैंने जानबुझकर इनमें से किसी पुस्तक का उदाहरण न लेकर मानस का उदाहरण लिया क्योंकि मैं इन पुस्तकों को व्यर्थ का प्रचार नहीं देना चाहता वैसे भी जिस तरह की व्याख्या इस पुस्तकों में की गई है, अन्य सभी धर्मों की किताबों की ऐसी व्याख्या से भी बाजार भरा पड़ा है। कुछ और बढ़ जाने से कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता।
अन्त मैं मानस की निम्न पंक्तियों द्वारा मैं इन लेखकों की वास्तविकता पर प्रकाश डालना चाहूँगा। -

हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भर सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। परहित घृत जिन्ह के मनमाखी॥

आपका

संजय अग्निहोत्री